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दोषी कौन? | Doshi Kon?

दोषी कौन? | Doshi Kon?दोषी कौन? | Doshi Kon?

दोषी कौन? | Doshi Kon?

सेठ दया राम जी अपने नगर के काफी प्रसिद्द व्यक्ति थे। उनके 5 -6 कारखाने थे, जिसमें हजारों व्यक्ति काम करते थे। व्यापार के अलावा उनके द्वारा कई स्कूल, कॉलेज, अस्पताल व छात्रावास बनवाये गए थे। वे उच्च कोटि के ब्राह्मण थे, उन्होंने हवेली के पास ही एक विशाल मंदिर बनवाया था, जिसमें घर के हर व्यक्ति को नित्य दोनों समय जाकर प्रसाद लेना जरूरी था। सब तरह से संपन्न और सुखी परिवार था, परन्तु संतान न होने की वजह से दोनों दुखी रहते थे।

एक बार वे कुम्भ स्नान के लिए हरिद्वार गए। वही उन्हें दो वर्ष का गुम हुआ एक बच्चा सेवा समिति के सेवकों द्वारा मिला। सेठानी तो बच्चे को गोद लेते ही निहाल हो गई। उसका गौर वर्ण और सुन्दर रंग-रूप देख कर ही अनुमान लगा लिया कि जरूर यह किसी उच्च घराने का है। अपने घर आकर सारे रीति-रिवाज के साथ उन्होंने बच्चे को गोद ले लिया। बच्चे का नाम माधव रखा। उस समय उन लोगों ने भी ज्यादा पूछताछ की जरूरत नहीं समझी।

बच्चे का आना इतना शुभ हुआ कि कुछ समय बाद सेठजी के घर एक बेटी का जन्म हुआ। धन-दौलत भी रात-दिन बढ़ती रही। इसी प्रकार १८ वर्ष बीत गए। माधव और छोटी बहन आस्था कॉलेज में पढते थे। आपस में सगे भाई-बहन से भी ज्यादा प्यार था। माधव पढ़ने के साथ-साथ खेल कूद में भी काफी अच्छा था। एम्. ए. में उसे कॉलेज में प्रथम स्थान मिला। एम.ए. के बाद आगे पढ़ाई के लिए वह विदेश जाना चाहता था। परन्तु सेठ जी उसे व्यापर में लगा देना चाहते थे। सेठजी अपने ही एक दोस्त की बेटी से माधव की शादी करवाना चाहते थे। रिश्ता पक्का हो गया और दोनों परिवार काफी खुश थे। उसी वर्ष पास के ही एक गांव में सूखा पड़ा। हजारों लोग अपना गांव छोड़कर अन्य स्थानों पर जाने लगे। सेठजी ने भी अपने नगर में आश्रितों के ठहरने कि उत्तम व्यवस्था की। स्वयंसेवको के साथ मिलकर माधव और आस्था लोगों की मदद किया करते थे।

एक दिन वे इसी प्रकार यात्रीदल की व्यवस्था कर रहे थे कि एक अधेड़ व्यक्ति माधव को घूर-घूर कर देख रहा था। थोड़ी देर में उसने अपनी पत्नी को भी बुला लिया ।आस्था ने हसकर कहा कि बाबा! इस प्रकार आप क्या देख रहे है;और आपकी आँख में आंसू क्यों हैं? थोड़ी देर तक तो वृद्ध चुप रहा, फिर सहमते हुए कहा- बेटी,मेरा बेटा राजू आज से 18 साल पहले हरिद्वार के कुम्भ मेले में गुम हो गया था। उसका रंग भी इसी तरह साफ था। उसके बाएं गाल पर भी इसी प्रकार का चिन्ह था। साहब को देख कर मुझे अपने खोये हुए बेटे की याद आ गई।

घर जाकर आस्था ने यह बात अपने पिता को कही। तो उनके चेहरे पर उदासी छा गई । रात में उस वृद्ध को बुलाकर पूछताछ की गई तो पता चला कि वो जाति का चमार हैं। उसवर्ष कुम्भ स्नान के लिये गए थे। वहीं उनका इकलौता बेटा भीड़ में खो गया था, जिसका आजतक पता नहीं चला। लड़के के कुछ और भी चिन्ह थे क्या? यह पूछने पर उसने कहा की उसके दाए हाथ में चोट का निशान था।ये सब बातें माथव और उसकी माँ भी सुन रहे थे । उस समय उस वृद्ध को कुछ रूपये देकर उसे यह कहकर विदा कर दिया कि तुम्हें इस प्रकार की फिजूल की बातें नहीं करनी चाहिए। पर ऐसी बातें कब तक छुपी रहती हैं। धीरे-धीरे सारे नगर में ये बात फ़ैल गयी ।

सेठजी और सेठानीजी कमरा बंद करके उसमे भीतर बैठ गए। बहुत कहने-सुनने के बाद भी वे भोजन के लिए बाहर नहीं आये। माधव बहुत ही योग्य और समझदार था। वस्तुस्तिथि उसकी समझ में आ गई थी। वह एक निश्चय पर आकर दूसरे दिन सुबह सुमन के पास जाकर कहने लगा, ‘बहनजी! जो कुछ होना था,वह तो हो गया। परमात्मा जानता हैं कि इसमें मेरा कोई कसूर नहीं हैं। फिर भी आप लोगों का इतना अपमान हुआ और माँ-पिताजी ने कल से कुछ भी नहीं खाया। कुछ उपाय करो कि वो कुछ खा लें। आस्था ने देखा की जो भाई उससे हमेशा हसी-मजाक करता रहता था, आज बहनजी बोल रहा था और सहमा-सा दूर बैठा हुआ हैं। उन दोनों ने बहुत विनती करके दरवाजा खुलवाया। देखा की एक दिन में ही पिताजी वृद्ध से लगने लगे। माँ एक तरफ अचेत पड़ी हुई थी। अन्य दिनों की तरह आज माधव ने पैर नहीं छुए। कुछ दुरी से कहा,’पिताजी, मेरा आपका सम्बन्ध इतने दिनों का ही ईश्वर को मंजूर था। अब आप मुझे हिम्मत करके विदा दें। आपने जितना पढ़ा-लिखा दिया है उससे आसानी से कमा सकूँगा।’

बहुत देर से रोका हुआ उद्वेग एक बरसाती नाले के बांध के जैसे टूट गया। इतने प्रतिष्ठित सेठ आज छोटे बच्चे की तरह रो रहे थे। कहने लगे-‘मैं भले ही चमार हो जाऊंगा, पर किसी भी हालत में तुझे नहीं छोड़ूगा। राम तो १४ वर्ष की लिए वनवास गए थे, पर तुम तो हमें बुढ़ापे में छोड़ कर जा रहे हो।’
इधर हवेली में सुबह से ही किसी न किसी बहाने सगे-सम्बन्धी आकर इकट्ठे हो गए थे और झूठी सहानुभूति दिखा रहे थे। सब कुछ जानते-बूझते हुए भी ‘क्या हुआ, कैसे हुआ’ आदि पूछ रहे थे। साथ में उन चमारों में से भी कुछ को लें आये थे। थोड़ी देर में माधव सबके सामने आकर कहने लगा कि आपने जो सुना हैं वो सब सत्य हैं। मैं चमारों का बेटा हूँ। इसी समय घर और नगर छोड़ कर जाने को तैयार हूँ। कृपा करके आप सेठजी को क्षमा कर दें। उन्होंने जो भी किया, बिना जानकारी के किया है। फिर बड़े से बड़े कसूर का प्रायश्चित तो होता ही हैं।

परन्तु सेठजी किसी भी हाल में माधव को छोड़ने को तैयार नहीं थे। रोते हुए गले लगाकर कहने लगे, ‘आस्था भी कपड़े बांध कर तुम्हारे साथ जाने की तयारी कर रही हैं,फिर भला हम अकेले इस घर में क्या करेंगे ?किसी गांव में जाकर चमारों की साथ रह लेंगे। माधव चाहता तो सेठजी इस बातों का फायदा भी उठा सकता था, परन्तु उसने आस्था और सेठजी को अनेक प्रकार से समझा बुझा कर विदा ली। बहुत कहने की बावजूद उसने साथ आपने केवल 2-4 जोड़ी कपड़ें ही लिये।

विदा के समय एक तरह से सारा गांव ही उमड़ पड़ा था। कलतक इस घटना में जो लोग ईर्ष्यायुक्त रस लें रहे थे,परन्तु आज वो फूट-फूटकर रोते हुए देखे गए ।