उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

एक बार एक महात्माजी नदी में स्नान कर रहे थे| उसी समय महात्माजी ने एक बिच्छु को नदी में डूबते हुए देखा| बिच्छु को बचाने के लिए महात्माजी ने उसे हाथ में ले लिया| महात्माजी जल में बह रहे बिच्छु को बचाने के लिए हाथ में लेते जाते थे, पर बिच्छु डंक मारे ही जा रहा था | किसी के रोके जाने पर महत्मा जी ने कहा- ‘जब ये छोटा सा जीव अपना स्वभाव नहीं छोड़ता तो मैं अपना स्वभाव (संत स्वभाव) कैसे छोड़ सकता हूँ?’.

रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने लिखा है ….
” परहित सरिस धर्म नहिं भाई ” .. “पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ”
“दूसरों का हित करने से बड़ा धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुंचाने के सामान कोई पाप नहीं है”
मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है मनुष्यता का होना है| व्यक्ति की धन्यता और पवित्रता सर्व जन हिताय कार्यों में संलग्न होने में ही होती है| दूसरों की भलाई करना ही सबसे बड़ा धर्म है| उदार व्यक्ति का अस्तित्व ही दूसरों के कल्याण के लिए होता है| साधुजन एवं सज्जनवृन्द एक छायादार वृक्ष के जैसे होते है जो दुसरो को आरामदायक छाया प्रदान करता है|

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