एक बार विश्वामित्र जी और वसिष्ठ जी में विवाद छिड़ गया कि तपस्या श्रेष्ठ है या सत्संग (Tapasya shreshth hai ya Satsang) । विश्वामित्र जी तपस्या के धनी है। अतः उन्हें उन्हें अपनी तपस्या का अतीव घमंड है तो विश्वामित्र जी अपनी तपस्या की श्रेष्ठता का प्रतिपादन कर रहे थे और वशिष्ठ जी महाराज कह रहे थे ठीक है, तपस्या अपनी जगह श्रेष्ठ है, परन्तु सत्संग भी कम नहीं है।
अब विवाद का हल कौन करे, तो दोनों महात्मा ब्रह्मा जी के पास गए, प्रार्थना की – महाराज ! आप कृपा कर बताएं कि तपस्या श्रेष्ठ है या सत्संग (Tapasya shreshth hai ya Satsang)? ब्रह्मा जी ने दोनों महात्माओ को देखा और मन में विचारा कि जिसके विरुद्ध निर्णय दुगा तो दोनों में से एक को अवश्य बुरा लगेगा । अतः ब्रह्मा जी बोले – भैया ! मुझे सृष्टि के कार्य से अवकाश ही कहाँ है, जो आप दोनों की शंका का समाधान कर सकूँ। आप दोनों भोले बाबा के पास कैलास चले जायँ, वे अवश्य ही आप दोनों की शंका का समाधान करेंगे। दोनों महात्मा कैलास पर गए और अपना प्रश्न दोहराया । शंकर जी ने भी अच्छी तरह सोच -विचार कर कहा – भैया ! मैं तो निरंतर राम नाम का जप करता रहता हूँ, मुझे इतना अवकाश ही कहाँ की आपकी शंका का समर्थन कर सकूँ, मेरी सलाह है कि आप दोनों भगवान शेषनाग के पास पाताल लोक पधारें, वे अवश्य ही आपकी शंका का समुचित समाधान कर सकेंगे।
दोनों महात्मा शेषजी के पास पाताल में पहुंचे उनके समछ भी अपना प्रश्न दोहराया कि तपस्या श्रेष्ठ है या सत्संग (Tapasya shreshth hai ya Satsang)। शेषजी बोले भैया ! मेरे सर पर पृथ्वी माता का भार है । इसे कोई थोड़ा हल्का कर दे तो मैं आपके प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकूँगा। विश्वामित्र जी आप थोड़ा प्रयत्न करें, विश्वामित्र जी ने अपनी साठ साल की तपस्या का फल पृथ्वीमाता को अर्पण किया और प्रार्थना की कि हे पृथ्वीमाता ! मैं अपनी साठ साल कि तपस्या का फल आपको अर्पण करता हूँ , आप थोड़ा शेष जी को अवकाश दे दें ताकि शेष जी हमारी शंका का समाधान कर सकें, फिर भी पृथ्वी माता एक इंचमात्र भी ऊपर न उठ सकीं। तब शेष जी ने वशिष्ठ जी से कहा – आप कुछ प्रयत्न कीजिये , वशिष्ठ जी ने प्रार्थना की – हे पृथ्वीमाता ! मैं अपनी एक घड़ी का सत्संग आपको अर्पण करता हूँ , आप थोड़ा शेष जी को अवकाश दे दें ताकि शेष जी हमारी शंका का समाधान कर सकें, तत्काल पृथ्वी माता शेषजी के सर से किंचित ऊपर उठ गयीं । तब विश्वामित्र जी बोले – शेषजी महाराज ! अब आप हमारी शंका का समाधान करने की कृपा करें। शेषजी ने कहा – अब भी शंका का समाधान की आवश्यकता रह गयी क्या ? जो काम आपकी साठ साल की तपस्या न कर सकी, वह एक घड़ी के सत्संग ने कर दिखाया है, अतः मेरे विचार से तपस्या से सत्संग बहुत ही श्रेष्ठ है ।
तुलसीदास जी कहते है, अनेक जन्मों के प्रभूत पुण्य हों, तभी महापुरुषों का सत्संग प्राप्त होता है –
पुण्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सत संगति संसृति कर अंता ॥ (रा च मा ७।४५।६)
तबहिं होइ सब संसय भंगा । जब बहु काल करिअ सतसंगा ॥ (रा च मा ७।६१।४)
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध ।
तुलसी संगत साधकी हरे कोटि अपराध॥
मन मैले तन उजले बगलन कैसे भेक ।
इनते तो कागा भले जो तर ऊपर एक ॥
श्रीरामचरित मानस में संत की कसौटी दी गई है, वहाँ वर्णन है कि गरुणजी ने जब काकभुशुण्डि जी के आश्रम में प्रवेश किया, तभी उनका मोह,संशय और भ्रम सब नष्ट हो गया । वे काकभुशुण्डि जी से कहते हैं –
देखि परम पावन टीवी आश्रम । गयउ मोह संसय नाना भ्रम ॥ (रा च मा ७।६४।२)
काकभुशुण्डि जी के आश्रम कि विशेषता थी कि माया के गन – दोष वहाँ प्रवेश नहीं करते थे वस्तुतः सच्चे संतों का यह प्रभाव रहता है कि उनके सात्विक स्वभाव के कारण वहाँ के जड़ चेतन समस्त पदार्थ सात्विक हो जाते हैं, जबकि असंत के पास जाने पर मन और अधिक भौतिक चक्र को फंस जाता है।