संत वाणी

(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्री शरणानंदजी महाराज )

मेरे निज स्वरुप ! जब भगवान हमारे है और हमारे भीतर ही हैं तो फिर चिंता कैसी ? शोक कैसा ? वे सर्वसमर्थ हैं, उनकी महिमा का वारपार नहीं, तो फिर भय कैसा ? उनकी सत्ता से कोई बहार नहीं, आँखों से कोई ओझल नहीं, तो फिर पश्चाताप कैसा ? इन बातों को अपने जीवन में उतार लेने वाले मनुष्य के आनंद की कोई सीमा नहीं रहती।
यदि भगवान को ही पसंद कर लें, हममें उनका प्यार पैदा हो जाएगा, उनकी याद आने लगेगी और मन भी लग जाएगा। यदि हम उन्ही के नाते सब काम करे, तो विस्मृति कभी नहीं रहेगी। भगवान प्यारे लगे, उनकी याद बानी रहे, मन लग जाए, इसी का का नाम भजन हैं। यही तो भक्ति है। परहित का भाव हो, सबके साथ सद्भावना हो – यही तो सेवा है। कुछ नहीं चाहना ही तो त्याग है। भगवान के समर्पण हो जाना ही तो प्रेम है। इसी का नाम सच्चा भजन है। अपने स्थान पर ठीक बने रहें, तो सभी धर्मात्मा हैं।
काम छोटा – बड़ा कोई नहीं है। अपने वर्णाश्रम के अनुसार सही बना रहे – यही धर्म है। विचार पूर्वक सबसे असंग रहना ही सच्चा वेदांत है। श्रद्धा-विश्वास पूर्वक भगवान की शरण ग्रहण करना ही वैष्णवता है। इन बातों के जीवन में आ जाने पर सभी का कल्याण हो जाता है। केवल कथन से तथा क्रिया मात्र से कभी किसी का कल्याण नहीं हो सकता।

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